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पंडित श्री लेखराज द्विवेदी आत्मज पंडित श्री जयनारायण जी द्विवेदी ग्राम धुन्दाडा,जोधपुर का जन्म २५/२६-११-१९२८ को प्रातः ४ बजे हुआ,इनका प्रारंभिक पठन इनके पिता जी के सानिध्य में ही कर्मकांड का विस्तार से अध्ययन किया,संस्कृत अध्ययन के लिए गिडूमल संस्कृत पाठशाला (सिंध-पाकिस्थान) में आचार्य पंडित श्री मणिशंकर जी द्विवेदी के सानिध्य में हुआ,१९३७-३८ में बंगाल की संकृत की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की,पंडित जी का यगोपवित संस्कार करने से पूर्व वेधाध्यान हेतु सौरास्त्र में जामनगर में श्री जाम रंजित संस्कृत पाठशाला में ब्रहमचर्य अवस्था की पूर्ण पालन करते हुए गुरुकुल आश्रम की तरह वैसे ही वातावरण में त्रिकाल संध्या, बलि वेशव्देव द्रिकल .हवन स्तुति कर्म करते हुए भीड़ भजन महादेव में आराधन करते हुए पंडित श्री रतिभाई त्रिवेदी,बतु भाई त्रिवेदी से साम, यजु सहिंता का अध्ययन किया,आचार्य श्री त्रयम्काबराम जी शास्त्री के सानिध्य में गुरुचरण सेवा रत रहते हुए पुन: १९४०-४१ में वाराणसी की संस्कृत प्रथमा भी प्रथम श्रेणी में पास की. फिर धुन्दाडा आकर समापवर्तन संस्कार किया पश्चात जोधपुर दरबार संस्कृत कॉलेज से चारो खंडो में संस्कृत मध्यमा १९४७ में पास की.इस बीच श्री स्वामी जी श्री करपात्री के सानिध्य में उदयपुर में लक्षचंडी हवन में दुर्गा पाठी और कर्मकांडी की परीक्षा पास कर कुंद नो. ५६ में पाठी २७२ के रूप में आचार्य पद का संपादन किया,ये उस समय की कर्मकांड में सबसे श्रेष्ठ प्रकिर्या की उपाधि थी. शास्त्री परीक्षा के अध्ययन काल में ही राजकीय सेवापद अध्यापक का पत्र १९४८ में प्राप्त हुआ, १९५१ में प्रयाग विश्व विद्यालय की सर्वोच्च उपाधि "हिंदी साहित्य रत्ना" प्रथम श्रेणी से पास की
एक ही वर्ष में १९५५-५६ में संपूर्ण विषय लेकर राजस्थान विश्व विद्यालय से पास की,१९५६-५७ में बी.एस.टी.सी परीक्षा पास की संस्कृत साहित्य में वेदा विषय लेकर राजस्थान विश्व विद्यालय ,अजमेर से संस्कृत प्रथम श्रेणी में पास की.
व्याख्याता पद १९८० में प्राप्त हुआ,१९८३ को सेवा का समापन राजकीय उच्चतर महाविध्यालय महात्मा गाँधी से हुआ.इस बीच मुंबई तत्व ज्ञान विद्या पीठ थाना में महान विभूति आचार्य पंडित हरी पांडुरंग शास्त्री आठवले के देख रेख में राजस्थानी ग्रुप के साथ स्वाध्य कर्म कर गाँव गाँव भक्ति फेरी कार्यकर्म १९६७ में भक्ति सभा से कार्य चालू किया जो १९८३ तक अनवरत चलता रहा.
लेख ज्योतिष व कर्मकांड का कार्य शुरू किया,बहुत से पत्र पत्रिकाओ में पंडित जी लेख,शोध पत्र प्रकाशित हुए.
१९७४ में पंडित जी ने :ब्रह्मार्पणं"पुस्तक प्रकाशन कर समाज सेवा हेतु प्रकाशित की,.१९७५ में पंडित जी ने "अंत्येष्टि कर्म" पर पुस्तक प्रकाशित कर्म किया ."ब्रह्मार्पणं" का दूसरा संस्करण १९७६ में पुन: प्रकाशित किया गया.
फिर "संपूर्ण महालक्ष्मी पूजन" व "दीपोस्तव श्राद्ध" १९८४ में प्रकाशित की .
ज्योतिष में महान आचार्य वराहमिहिर के पुत्र की " "सत्पंचाशिका" पुस्तक पर हिंदी टीका मय विचार विमर्श के १९९८ में लिखी.ज्योतिष सुमन पत्रिका में २००० से निरंतर लेख लिखे, इस तरह ज्योतिष और कर्म कांड की सेवा करते हुए ज्योतिष शिक्षा का प्रचार प्रसार करते रहे |
परम पूज्य पंडित श्री लेखराज जी द्विवेदी जी ने  ना जाने कितने ही जिज्ञासुओ को अपना गुरुत्व देकर  कृतार्थ किया और हमे इस योग्य बनाया की हम उनके पद चिन्हों पर उन्ही की शिक्षा का अनुसरण करते हुए ज्योतिष और वेदा विज्ञानं का प्रचार प्रसार करते रहे |
"गुरु बिना ब्रहम नान्यत ,सत्यम सत्यम वरानने "

Mantra banner: वेदचक्षु किलेदं स्मृतं ज्योतिषं मुख्यता चाङ्गमध्येऽस्य तेनोच्यते |
संयुतोऽपीतरैः कर्णनासादिभिश्चक्षुषाङ्गेन हीनो न किंचित्करः ||
तस्माद्द्विजैरध्ययनीयमेतत् मुख्यं रहस्यं परमं च तत्त्वम् |
यो ज्योतिषां वेत्ति नरः स सम्यग् धर्मार्थकामान् लभते यशश्च ||
                                      (भास्कराचार्य )